लद्दाख यात्रा:- कारगिल से प्राचीन जांस्कर घाटी तक, रंगदुम, पदुम एवं ज़ांस्कर घाटियो के कुछ अद्धभुत प्राचीन एवं नैसर्गिक स्थलों का विवरण.

मेरी लद्दाख यात्रा की महत्वपूर्ण कड़ी थी रंगदुम, पदुम तथा ज़ांस्कर ( ज़गला ) जाना. मिथक और अनेको रहस्य की धुंध मे लिपटी, कठोर हिमालय एवं काराकोराम पर्वत्तो के बिच ना जाने कितने प्राचीन रहस्यों पुराने मठो एवं  घाटियों मे निहित है,
ऐसी भूमि जहाँ पहाड़ों की चुप्पी भी कहानी कहती है.जहाँ हवा में प्राचीन मंत्रों का संगीत है...
और नदी की हर लहर समय का रहस्य समेटे बहती है, मेरी लद्दाख यात्रा के विवरण मे इन तीनो स्थानों का आंशिक विवरण मेरे अनुभव पर आधारित है..नैसर्गिक घाटियों एवं पुराने मठो के बिच गुजरते रास्ते सैदव स्मृति मे है..

         ज़गला गाँव का 10वीं शताब्दी का पैलेस

कारगिल से प्रस्थान -  पूर्व का विवरण हम आने वाले लेख मे देंगे जिसमे बिहार से जम्मू, तथा जम्मू से कश्मीर, सोनमार्ग, बालथल, द्रास होते हुए कारगिल का विवरण पहले भाग मे पढ़ने को मिलेगा,यह दूसरा भाग मे कारगिल से रंगड़ूम, पदुम एवं ज़स्कार का यात्रा विवरण लिखित है,.
मध्याह्न 9 जुलाई को, हमने कारगिल से जांस्कर के लिए प्रस्थान किया जो लगभग 280 km की दुरी पर विरले पर्वतो के बिच मे बसा था,सुरु नदी एवं पुराने गाँव के बिच से होकर यें मार्ग सुखद अनुभूति देती है, इसी यात्रा मे पहला पड़वा रंगड़ूम गाँव एवं मठ, फिर पदुम उसके पश्चात हमें ज़न्सकर पहुंचना था.                    सुरु नदी एवं घाटी का दृश्य 
            सुरु घाटी ( बेमा खुम्बो के पास)

कारगिल से आगे बढ़ते हुए प्रतीत होता है की सुरु नदी  हमारा साथी बन गया हो, घाटी मे उतारते ही, मन और शरीर भावविभोर हो जाता है,हिमालय के श्रृंखला से निकले  सुरु नदी केवल एक जलधारा नहीं, बल्कि प्राचीन सभ्यताओं और सामरिक मार्गों की सजीव कहानी है। यह नदी कारगिल और ज़ांस्कर क्षेत्र की जीवनरेखा मानी जाती है। इसकी घाटी सदियों से इतिहास, संस्कृति, व्यापार और संघर्षों की साक्षी रही है। कारगिल से रंगड़ूम जाने के क्रम मे हमें कई प्राचीन गांवों को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिनमे सलीस्कोटे, खच्चन, बेमा खुम्बो, तंगोल एवं गुलमालोंग इत्यादि प्रमुख है इन गांवों मे 7वीं सदी से लेकर 15वीं सदी के साक्ष्य मौजूद है, जो अधिकतर बौद्ध धर्म से संबध रखते है    बोधिसत्व के पत्थर पर अंकन, 7वीं शताब्दी, बेमा       खुम्बो (कारगिल से रंगड़ूम जाने के क्रम मे )

कारगिल मे बौद्ध धर्म का प्रसार अशोक के समय ही आरम्भ हो गया था, पहली शताब्दी आते आते यह इस क्षेत्र मे मजबूती से फैला, फिर इसकी दूसरी लहर 8-9 वीं सदी मे तिब्बती -बौद्ध धर्म का व्यापक प्रभाव इस क्षेत्र मे पड़ा. अभी अभी इस क्षेत्र मे काफ़ी प्राचीन मूर्तियां का चित्रकण  एवं मठो के अवशेष दिखाई पड़ते है. सुरु नदी के किनारे-किनारे चलती सड़क जैसे किसी पुरातन पगडंडी की तरह आपको एक गहरी और प्राचीन दुनिया में ले जाती है। रास्ते में देखकर विश्वास नहीं होता कि यह कठोर हिमालय का वही क्षेत्र है। जहाँ हरी मखमली घास के मैदान, छोटे-छोटे सेब और खुबानी के बगीचे और कही कही बर्फ से लदे चोटियां   हमें एहसास कराती हो जैसे मानो प्रकृति ने यहाँ स्वर्ग का एक टुकड़ा सजाकर रखा हो। लेकिन जल्द ही फिर से एक ठंडे सूखे रेगिस्तान एक लंबे समय तक हमारी आँखों मे बसने वाली थी,संकू के बाद जब सड़क कच्ची सी होने लगती है, तो दृश्य बदलने लगती है, हरी घाटियों के बाद पत्थरीले इलाके, मोरन, पहाड़ियों के रेत नदी किनारे ग्लेशियर पहाड़ियाँ से हमें समाना होने लगता है, इसे देखना अत्यंक रोचक था.
       एक गाँव का दृश्य ( कारगिल -रंगड़ूम  मार्ग)

संध्या होने को आ गई थी, कारगिल से रंगड़ूम की दुरी 120-130 km के बिच मे है.फिर भी  6-7 घंटे वहन से समय लग जाती है,फिर हम जैसे घुमक्कड़ को जिसे हर गाँव  और हर घाटी, एवं प्राचीन स्थल देखना देखना था, तो क्या समय इस सीमा मे हमें बांध सकी, संभवतः उत्तर आप दे.फिर भी संध्या तक हम रंगड़ूम गाँव आ पहुंचे, तकबतक ठीकना नहीं था की आज की सर्द भरी रात गुजरा कहाँ जाये, वैसे कहते है न जहाँ चाह है वहाँ राह है.. खैर रंगड़ूम पहुंचने पर अद्धभुत एहसास हुआ, जैसे मानो इस गाँव मे सिर्फ मै ही हु, बिलकुल शांत एवं नैसर्गिक दृश्य जैसे माया ने कोई मायापाश फेका हो, अद्धभुत है रंगड़ूम..

              रंगड़ूम गाँव का न्यारा दृश्य

रंगड़ूम गाँव कारगिल से 130 km दूर दक्षिण मे पड़ता है, सुरु घाटी के अंतिम छोर पर स्थित है रंगड़ूम गाँव. यह गाँव लगभग 1300 फिट पर स्थित है, इस गाँव के चारो ओर फैली करछू, नून-कुन, दरंग-दुरु की पर्वत श्रृंखला मानो की मानव सभ्यता और कठोर हिमालय प्रकृति आपस मे मिलकर एक दिव्य दृश्य रचती है, मै गहरी संध्या होने तक इस गाँव मे मानो खो सा गया था, स्तुपो एवं छोटे छोटे पथरो पर भोट भाषा मे उत्कृण लेख ठहरवा का कारण बना. लद्दाख क्षेत्र मे इन लेख सिलाओ को मणि पत्थर कहा जाता है.ॐ मणि पद्म हूँ अवलोकितेश्वर (चेनरेज़िग) यानी करुणा के बोधिसत्व का मंत्र है। भोट क्षेत्र ( तिब्बत-भूटान) और लद्दाख के लोग मानते हैं कि इस मंत्र के लिखे या पढ़े जाने से करुणा एवं शांति बढ़ती है, उनके लिए यहां प्रकृतिक एवं धार्मिक आस्था का भी महत्व को दर्शती है.यें पत्थर मठो, गांवों, पुल इत्यादि के पास आपको देखने को मिल जायेंगे, पुरातत्व के छात्र होने कारण मेरे लिए एक साथ खजाना देखने जैसा था, लद्दाख मे स्तुपो, मणि पत्थर को हमेशा दाई ओर से रखकर परिक्रमा करते है.          भोट भाषा मे उत्कृण पुरानी एवं नई लेख               पांच बुद्ध का स्तुप ( रंगड़ूम ) 

इस व्यापक क्षेत्र मे बौद्ध धर्म के वज्रयान शाखा एवं उसके सम्प्रदाय के प्रमुखता है, यें पांच स्तुप पांच बुद्ध के प्रतीक है यें है वैरोचन,अक्षोभ्य,रत्नसंभव,अमिताभ और अमोघसिद्धि, यें देवता दिशा के सूचक भी है,मना जाता है की यह स्तुप बुरी शक्तियों से रक्षा एवं यात्रियों के लिए सुरक्षित राह के प्रतीक थे.           रंगड़ूम गाँव मे आपने दादी के साथ बालक                        रंगड़ूम गाँव मे 

पहाड़ो मे रात लगभग 8 बजे होती है, अमूमन रंगड़ूम जैसे क्षेत्र मे ठंडा -25 डिग्री तक चली जाती है, तब जीवन अत्यंत कठिन हो जाता है, अप्रैल से सितंबर तक मौसम अनुकूल रहता है,  सच कहु तो रंगड़ूम मठ के बारे मे मैंने न सुना था, न देखा था, न रंगड़ूम जाने का विचार लेकिन कहते है न खोजी प्रवृत्ति के नियती मे कभी कभी ऐसे स्थल स्वयं ही खींच लेता है,मानो की प्रकृति हमें मठ की ओर धकेल रही हो, मानो की समय कुछ क्षण के लिए रुक सा गया हो,एक मोड़ के बाद ऊँचाई पर लोहे जैसे काले पहाड़ों के बीच अचानक उभरा रंगडूम मठ।
वह एक किले जैसा दिखाई देता है मौन, प्राचीन, और अद्भुत,सदियों से खड़ा यह मठ ऐसा लगता है जैसे आसमान से धरती पर उतरा एक अलौकिक दृश्य सा हो।                17वीं शताब्दी का रंगड़ूम मठ  
                   रंगड़ूम मठ के सामने ( स्तुप )
                                मठ 
इस मठ की स्थपना 17-18वीं सदी के बिच हुई थी,मठ के संस्थापक थे गेलेक यशय तक़पा, (Gelek Yashy Takpa )कही कही  पर लोसँग गेलेग येसे द्रोगपा (Losang Geleg Yeshe Drogpa )नाम से भी उल्लेख है)  उन्होंने इस कठिन, ऊँचे और दूरस्थ हिमालयी इलाके में यह मठ स्थापित किया। उनका यहां लगभग 300 वर्ष पुरना ममी भी सहेज कर रखा गया है,  मठ आपने आप मे अनोखा है,मठ की दीवारों, प्रार्थना हॉल, मूर्तियों, थांग्काओं (तिब्बती धार्मिक चित्र या पेंटिंग्स), कई देवताओ से सम्बंधित चित्र, प्रार्थना-पताकाओं आदि में हिमालयी बौद्ध संस्कृति की झलक मिलती है। साथ साथ मे यहां पुराने पाण्डुलिपियों एवं धार्मिक पुस्तकों  का संग्रह है, जिसे परम्परिक ढंग से सहेज के रखा गया है, कुछ ग्रन्थ संस्कृत मे भी है, अधिकतर तिब्बती भाषा मे है.मठ पारंपरिक रूप से बना है, लकड़ी का कार्य अच्छे ढंग से किया गया है, फिर एक अंदर मे कक्ष जिसमे बुद्ध देव की बड़ी सा प्रतिमा है, फिर बाहर मे बड़ा सा सभा एवं प्रार्थना कक्ष है, उसके बाहर एक आँगन, फिर चारो ओर कक्ष है, शायद भिक्यों के रहने के लिए है, एक रसोइया घर भी है, चारो ओर यह स्थान बड़े बड़े बर्फ़ीले पहाड़ो से घिरा हुआ है. मानो दूर दराज तक सिर्फ पहाड़ ही पहाड़......
 
                रंगड़ूम मठ का अंदर का दृश्य                                      पुराने ग्रंथो का संग्रहा
                   पारंपरिक थांका पेंटिंग                   300 वर्ष प्राचीन ममी                      मठ मे 
मठ के सामने ही हम और मेरे मित्रो ने रात टेंट मे कटी, एकद बार कुत्तो का भी अगमन हुआ, लेकिन कोई हानी नहीं हुई, हाँ, सुबह मे तिब्बती चाय ( नमक एवं मक्ख़न ) पीते समय मठ के ही कुत्ते ने (तिब्बती नस्ल ) थोड़ा हमला किया लेकिन बाद मे रसोईये ने कमान सम्भली, तत्पश्चात वहां लामा जी विदा लेकर, हम पदुम की ओर बढे. 
पदुम की ओर ( 10 जुलाई, 2025) 
सुबह की धूप रंगडूम घाटी के बर्फ़ से लदे शिखरों पर सुनहरी परत बनाकर फैल चुकी थी। मठ के प्रांगण में शांति का ऐसा संगीत गूँज रहा था मानो सदियों से यही हवा इसी शांति को संजोए प्रतीक्षा कर रही हो।  विदा लेने का समय आया, तो मन कुछ क्षणों के लिए थम-सा गया। लाल वस्त्रों में लामा भाई की मुस्कुराहटें जैसे कह रही थीं "यात्रा आगे बढ़ती है, पर यहाँ की यादें यहीं नहीं रुकतीं।"जैसे वहाँ की वातावरण वचन मांग रही हो की फिर से आना होगा न पथिक.. ओह्ह कितना भावपूर्ण.
मठ की दीवारों पर उकेरे गए पुरातन रंगों, स्तूपों और वीरान चोटियों को अंतिम दृष्टि देकर हम आगे बढ़ चले। सुरु नदी के किनारे-किनारे बना कच्चा मार्ग, दूर-दूर तक फैली घासभूमि, और बीच-बीच में चरती याकों की टोलियाँ - हर दृश्य मानो कोई प्राचीन कथा सुना रहा था। हवा में हल्की ठंडक थी, पर रोमांच की ऊष्मा कदमों में तेजी भर रही थी।

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